बच्चों की किताबों के लिए पैसे नही पर शादी मे लाखों खर्च करना कहाँ तक जायज ?

आज हम बात उस मध्यम और निम्न वर्ग की कर रहे हैं जो आर्थिक रूप से बहुत कमजोर होने के बावजूद भी  शादियों में लाखो रूपये खर्च कर देते हैं। वैसे ये सामाजिक परंपरा है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। ऐसा नहीं की परिवर्तन नहीं हुआ है, पर शादियों के खर्च के मामले में यह नगण्य है। 

बच्चों की किताबों के लिए पैसे नही पर शादी मे लाखों खर्च करना कहाँ तक जायज ?


मेरे पिता जी और दादा जी कहते थे कि पहले बारात तीन दिन की होती थी, बाराती बैलगाड़ी और पैदल यात्रा करके बारात पहुंचते थे और शादी समारोह में तीन दिन तक आनंद लेते थे। उस समय भी शादियों में खूब पैसे खर्च होते थे, यहाँ तक की लोगो के पास पैसे नहीं होते थे तो वे कर्ज लेकर शादियों में पैसा खर्च करते थे और सालो-साल उस कर्ज का ब्याज भरते थे। 

आज भी दशा वही है केवल थोड़ा वक्त बीत गया है थोड़ा परिवर्तन बारात के समय में हुआ है, अब बारात एक रात की या फिर शादी का प्रोग्राम दिन में संपन्न हो जा रहा है, पर खर्चे में कोई कमी नहीं हुयी है। आज भी लोग शादियों के लिए कर्ज लेकर सालों साल ब्याज चुकता करते हैं। 

अब शायद आप यह सोच रहे होंगे की मै आपको शादी में खर्च कम करने के लिए बोलूंगा तो ऐसा बिलकुल नहीं है। हाँ पर एक बात जरूर पूछूंगा, कि हम में से कितने लोगों ने बच्चों के लिए किताबे कर्ज लेकर खरीदी हैं ? शायद कोई नहीं या बहुत कम लोग। 

मेरा सुझाव 

जब हम अपने बच्चों की शादी के लिए लाखों रूपये खर्च कर देते हैं तो बच्चों को किताबे, कापियां, पेन्सिल दिलाने के कुछ रूपये अपनी जेब से क्यों नहीं खर्च कर सकते ? और हाँ शुरूआती पढाई में इतना पैसा भी नहीं लगता। अगर हम अपने बच्चों को पढ़ायेंगे, लिखायँगे तो शादी तक बच्चे इतना पैसा खुद ही कमा लेंगे की हम उनकी शादी खूब धूमधाम से कर सकें। 

हाँ मेरा यह भी मानना है कि शादी, विवाह, मुंडन या किसी भी प्रोग्राम में पैसे अपनी जेब देखकर ही खर्च करना चाहिए, दिखावे के चक्कर में कर्ज लेकर तो बिलकुल खर्च नहीं करना चाहिए। 

ये मेरे अपने विचार है आप अपनी राय कमेंट बॉक्स में जरूर शेयर करें। 

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